ऐ मेरे वतश के वासिन्दों,
कर्तव्य तुम्हें पुकारता है।
मजदुर एक ईधन बनकर
क्षम के चूल्हों में जलता है।
पसीने की हर बूंदे उनकी,
हर रोज आयाम बदलता है।
कयों जोर है जुल्मों का इन पर,
कयो मना है इनको मुस्काना।
आकांश बनी है उनकी झूठी हवेली,
सचाई तो है कसाई खाना।
कयो क्षम से भरी इस गुलशन को,
बेदर्द फिजा उजाड़ता है।
बहार दे दो उन फूलों को,
जो रोज खिलता मुरझाता है।
क्षम के इस पावन मंदिर में,
कयों शोषण की घंटी बजती है।
अफसोस है इनकी पसीनो से,
अमीरों की कारें चलती है।
उठा दो नकाब उन चेहरों से,
जो मजदूरों को तडफाता है।
जैसे पूरब की लाली सुबह,
अंधकार का घुघट उघाड़ ता है।
करे यह दढ़ संकलप फिर।
देखें कौन ललकारता है।
ऐ मेरे वतन के वासिन्दों,
कर्तव्य तुम्हें पुकारता है।
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